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Showing posts from March, 2017

छिप - छिपकर रोता हूँ...

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छिप - छिपकर रोता हूँ… मैंने गीत लिखना छोड़ दिया क्यूँ? ऐ सनम ये ना पूछ । अब नहीं लिख पाता हूँ तेरे नाम के अलावा कुछ । अपने दामन में खुद ही, आँसू के बीज बोता हूँ । आज भी अकेले में, छिप - छिपकर रोता हूँ । ये गुस्सा एक आवरण है, मुझे पता है रुठा मेरा यार नहीं है । दिल पे हाथ रख के पूछा था झूठा मेरा प्यार नहीं है । यूँ जब से तू रुठी है, तब से कहाँ मैं सोता हूँ । आज भी अकेले में, छिप - छिपकर रोता हूँ । तेरे जाने की तड़प और आने की आश मेरे नयन तक रहे। मेरी खुशी और गम की दास्तान तेरे चयन तक रहे। आज भी तेरी उस तस्वीर में, वैसे ही खोता हूँ । आज भी अकेले में, छिप - छिपकर रोता हूँ । चाँद को आधा देखकर सितारों के साथ, बुरा लगता है । जैसे तेरे साथ बिना ये हाथ अधूरा लगता है । इस अधूरेपन का बोझ, अकेले ही ढ़ोता हूँ । आज भी अकेले में, छिप - छिपकर रोता हूँ । दुनिया कहती है तेरी यादों ने मुझे बर्बाद किया है । ना जाने फिर क्यूँ मैंने ख़ुदा से ज्यादा तुझे याद किया है । जो मेरे ना हो सके, उन यादों को आज भी संजोता हूँ

ये होली ना भाय रे ।

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ये होली ना भाय रे Drawn By : Deepak Sahu Art By : Amrita Pattnaik  आ गई  है पूर्णिमा इस फ़ाल्गुन की । आ रही है याद बड़ी वृंदावन में निर्गुन की । होली की उमंग में भी दुख के बादल छाए रे। हे कान्हा, तुम बिन ये होली ना भाय रे । अब किसी को रंग लगाने ये हाथ बढ़ेगा नहीं । तू जो ना तो केशव किसी का रंग चढ़ेगा नहीं । अब इस ललाट पर केवल सखियाँ रंग लगाए रे। हे कान्हा, तुम बिन ये होली ना भाय रे । इतना भी नशा नहीं आज होली के भंग में । जितनी मदहोशी होती थी वृंदावन में, तेरे संग में । होली में लोग भले ही ढ़ोल मंजिरा बजाए रे। हे कान्हा, तुम बिन ये होली ना भाय रे । प्रजा तुम्हारी गा रही है होली में फगुआ। कान्हा कृष्णा जप रहा है मन रुपी ये सुगुआ। ना जोगीरा, ना फगुआ, दिल बिरह के गीत गाए रे। हे कान्हा, तुम बिन ये होली ना भाय रे । कृष्णा तेरी याद में बीत गया एक बरस। तेरे एक दरस को मनवा गया तरस। तेरे बिना वृंदावन में रास कौन रचाए रे। हे कान्हा, तुम बिन ये होली ना भाय रे । मन बेचैन हो उठता था तेरी बोली सुनक